Sobhna tiwari

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परिणीता भाग :- १५

                    Parineeta     भाग :- १५


शेखर की इस बात को सुनकर भुवनेश्वरी की व्यग्रता और भी बढ़ गई, परंतु इस भाव को प्रकट न करके उन्होंने कहा- ‘अच्छा बैटा, ठीक है। इस समय मुझे बहुत-से आवश्यक कार्य करने हैं।’

शेखर ने हंसने का-सा मुंह बनाकर सूखे स्वर में कहा- ‘मैं तुमसे बिल्कुल सत्य कहता हूँ, माँ। यह शादी कतई नहीं हो सकती।’

भुवनेश्वरी- ‘यह भी क्या बच्चों का खेल है, बेटा?’

शेखर- ‘यह बच्चों का खेल नहीं है, इसी कारण तो मैं तुमसे बार-बार कहता हूँ, माँ।’

इस बार सचमुच ही कुछ क्रोध करके भुवनेश्वरी ने कहा- ‘मुझे ठीक-ठीक बता, बात क्या है? इस प्रकार गोल-गोल बातें मुझे न ही भली लगतीं हैं ओर न ही उन्हें समझा पाती हूँ।’

धीमे स्वर में शेखर ने कहा-‘किसी दूसरे दिन सुन लोगी, मैं सभी बातें स्पष्ट रूप से तुम्हारे सामने रख दूंगा, माँ!

‘किसी दूसरे दिन कहेगा?’ कपड़ों को एक बार किनारे हटाते हुए भुवनेश्वरी ने कहा- ‘ललिता भी मेरे साथ जाने के लिए तैयार बैठी है। देखूं उसका कुछ प्रबंध कर सकती हूँ अथवा नहीं।’

इस बार शेखर ने मुंह उठाकर कहा- ‘माँ, जब तुम उसको साथ ले जा रही हो, तो उसके लिए कुछ बंदोबस्त करने की आवश्यकता क्या है? तुम्हारी आज्ञा से बढ़कर उसके लिए और किसकी आज्ञा हो सकती है।’

शेखर को हंसते देखकर वह बड़े ही आश्चर्य में पड़ गई, और एक बार ललिता की ओऱ देखकर बोली- ‘बेटी! इसकी बातें सुनती हो न। यह समझता है कि मैं अपनी इच्छा से, जो भी जाहूँ तुमसे कह सकती हूँ, जहाँ चाहूँ, ले जा सकती हूँ शायद वह तुम्हारी मामी से पूछने की भी जरूरत नहीं अनुभव करता।’

ललिता बिल्कुल चुप रही, पर शेखर की बातचीत और भावों को देखकर वह शर्म के मारे जमीन के अन्दर घंसी जा रही थी।

शेखर ने फिर कहा- ‘यदि तुम इसकी मामी को सूचना देना ही चाहती हो, तो वह तुम्हारी मर्जी, परंतु होगा वही, जो तुम कहोगी। मैं तो यह कहता हूँ कि इसमें तनिक भी संदेह नहीं। जिसको तुम साथ ले जाना चाहती हो उसे तनिक भी इनकार न होगा। वह तुम्हारी, बहू है माँ, यह कहकर शेखर ने अपना सिर झुका लिया।

भुवनेश्वरी आश्चर्य में पड़ गई, जन्म देने वाली माँ के सम्मुख पुत्र इतना परिहास, लेकिन अपने को संभालकर उन्होंने कहा, ‘क्या कह रहा है शेखर, ललिता मेरी कौन है?’

शेखर ने मुंह ऊपर नहीं उठाया और धीरे-धीरे बोला, बल्कि चार वर्ष पहले की बात है। तुम उसकी सास हो माँ, और वह तुम्हारी पुत्रवधु है। अधिक मैं कहने में असमर्थ हूँ माँ! ‘तुम उससे ही सब पूछ लो।’ यह कहने के पश्चात् शेखर ने देखा कि ललिता गले में आंचल डालकर माँ को प्रणाम करने का उपक्रम कर रही है। वह भी उसके बगल मैं आकर खड़ा हो गया। दोनों ने आशीर्वाद पाने की लालसा, से झुककर माँ को प्रणाम किया। दोनों घुटने टेक्कर जमीन पर नतमस्तक हो गए। इसके पश्चात् शेखर एक मिनिट भी न रुक सका और वहाँ से चला गया।

भुवनेश्वरी बड़ी ही प्रसन्न थी। उनकी आँखों में खुशी के आँसू उमड़ आए। वास्तव में वह ललिता को हृदय से प्यार करती थी, बिल्कुल सगी पुत्री की ही भांति उसे समझती थी। खुशी से उन्होंने ललिता को अपने पास खींच लिया और उसके सामने गहने वाला सन्दूक खोलकर रख दिया। थोड़ी ही देर में उन्होंने ललिता के संपूर्ण अंगो को गहनों से आभूषित कर दिया। फिर ललिता से कहा- ‘क्या इसी कारण गिरीन्द्र का ब्याह अन्नाकाली से हुआ?’

ललिता ने सिर झुकाए कहा- ‘हां, माँ। इस संसार में गिरीन्द्र बाबू की भांति सत्य पुरुष होना कठिन है। जब मैंने उनसे अपनी बातें बताई, तो उन्होंने मेरे कहने पर विश्वास कर लिया। उन्होंने समझ लिया कि मैं ‘परिणीता’ हूँ। मेरे पतिदेव इस संसार में मौजूद अवश्य हैं पर मुझे अपनाएं या न अपनाएं- यही उनकी अपनी इच्छा है। इतना सुनकर गिरीन्द्र ने औऱ आगे जानने की चेष्टा न की।’

भुवनेश्वरी बहुत ही प्रसन्न थीं। उन्होंने ललिता के मस्तक पर हाथ रखकर कहा- ‘मैं आशीर्वाद देती हूँ कि तुम दोनों दीर्धजीवी हो। अच्छा, बेटी, तुम यही ठहरो! और मैं जाकर बड़े पुत्र अविनाश को बता आऊं कि ब्याह की लड़की बदल गई है।’

यह कहकर भुवनेश्वरी हंसती हुई प्रसन्नचित से अविनाश के कमरे की ओर चली गई, और ललिता नई बहू की भांति सिर पर घूंघट डालकर बैठ गई।

(समाप्त)

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3 Comments

Zakirhusain Abbas Chougule

11-May-2022 08:36 PM

Nice

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Abhinav ji

29-Apr-2022 11:55 PM

Nice👍

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Shrishti pandey

29-Apr-2022 09:39 PM

Very nice

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